जैन धर्म में सात तत्त्व माने गए हैं।
जीव तत्व- वे, जिनमें चेतना हो। जानने-देखने की शक्ति हो। जैसे- वनस्पति, वायु, जल, अग्नि, पशु, पक्षी, मनुष्य।
अजीव तत्व- जिनमें चेतना न हो, जैसे- लकड़ी, पत्थर।
आस्रव तत्व- बंधन का जो कारण हो। आ+स्रव द आस्रव। आत्मा की ओर कर्मों का बहना। इंद्रिय रूपी द्वार से विषयभोग आत्मा में घुसते हैं और उसे बिगाड़ते हैं। इनमें कषाय मुख्य है। आत्मा को जो कसे, दुःख दे, मलीन करे सो ‘कषाय’। ये कषाय चार हैं- 1. क्रोध, 2. मान-अभिमान, 3. माया-कपट और 4. लोभ।
बंध तत्व- जीव के साथ कर्म का बँध जाना। जैसे- दूध और पानी। इसमें दोनों की असली हालत बदल जाती है।
संवर तत्व- आस्रव को रोकना, कर्मों को न आने देना।
निर्जरा तत्व- बँधे हुए कर्मों का जीव से अलग होना। निर्जरा दो तरह की होती है- 1. अविपाक और 2. सविपाक।
मोक्ष तत्व- आत्मा का कर्म बंधनों से छूट जाना। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र से कर्मों का बंधन शिथिल होकर जीव को छुटकारा मिलता है। आत्मा को परमात्मा का स्वरूप मिलता है।