जैन दर्शन का मुख्य आधार है- ‘अनेकांत’। ‘अनेकांत’ यानी एक चीज का अनेक धर्मात्मक होना। भिन्न-भिन्न दृष्टि से जब हम देखते हैं, तो एक ही चीज एक ही नहीं, अनेक धर्मात्मक दिखाई पड़ती है। हर चीज का वर्णन किसी न किसी अपेक्षा से किया जाता है। हर वस्तु को मुख्य और गौण, दो अपेक्षाओं से ग्रहण किया जाता है। एक दृष्टि से एक चीज सत् मानी जा सकती है, दूसरी दृष्टि से असत्। अनेकांत में समस्त विरोधों का समन्वय हो जाता है। जो आदमी अनेकांत को मानता है, सत्य को अनेक दृष्टिकोण से देखता है, वह अपने किसी हठ को लेकर नहीं बैठता। किसी बात पर अड़ता या झगड़ता नहीं। समभाव से रहता है।
इसी का नाम ‘स्याद्वाद’ है। जैनियों के मत से इसका अर्थ है- ‘सापेक्षता’, ‘किसी अपेक्षा से’। अपेक्षा के विचारों से कोई भी चीज सत् भी हो सकती है, असत् भी। इसी को ‘सत्तभंगी नय’ से समझाया जाता है।