एक तन्हा मुसाफिर था,
राहों पे यूं चलते हुये
अपनी ही धुन में ग़ाफिल था
आयी लहर थी कुछ सपनों की,
नए राहें रौशनी उसने भी
देखी थी वहां झलक अपनों की
अन्जान न था वो दुनिया के दस्तूर से,
वो टूटते जज्बो़ से देखे
इन्सानी चेहरे होते बेनूर से
फिर शामिल वो भी था उस जमात में,
बनते जहां कम ही फसाने
पर मिटते ज़रूर चन्द क़दमात में
था कभी मशगूल अपनी ही बातों में,
चाहें हो तन्हा वो लेकिन
तल्लीन था अपनी ही सौगातों मे
आया फिर एक हवा का झौंका,
बनते हुये तमाम एहसास
अलफाज़ को ऐसा उसने रोका
और भी तन्हा दिन,अकेली रातें थीं,
तन्हा तो वो था पर अब
उसकी अपनीं तन्हाईयां भी न उसके हाथों थी
एक बार फिर तन्हा मुसाफिर था,
झूठे हुये सारे माइने
टूट चुका जिंदगी का उसकी नाफिर था