रामायण का एक प्रसंग है। सीता की खोज में दक्षिण दिशा की तरफ गए वानर दल को समुद्र के किनारे एक गिद्ध मिला। उसका नाम था संपाति। ये जटायु का बड़ा भाई था। संपाति ने वानरों से कहा कि मैं समुद्र के इस किनारे पर बैठकर बता सकता हूं कि उस पार लंका में सीता कहां हैं।
आपमें से किसी एक को समुद्र लांघ कर उस पार जाना होगा, सीताजी के दर्शन आपको वहीं होंगे। वानर दल को सीता का पता तो मिल गया लेकिन बड़ा सवाल ये था कि 100 योजन का समुद्र लांघकर जाएगा कौन? द्विविद, मयंद, सुषैण जैसे कई बलशाली वानर इस दल में थे। किसी ने कहा वो 80 योजन तक जा सकता है। किसी ने कहा, मैं 90 योजन तक जा सकता हूं।
अंगद ने कहा, मैं समुद्र लांघकर उस पार जा सकता हूं, लेकिन मुझे संशय है कि मैं लौटकर नहीं आ पाऊंगा। वानर दल में सबसे वृद्ध जामवंत ने कहा, आपको जाना नहीं चाहिए क्योंकि आप इस दल के नेता हैं। इस सब के बीच हनुमानजी चुपचाप ही खड़े रहे।
फिर जामवंत ने कहा, सतयुग में जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर राजा बलि से दान का संकल्प कराया था। उन्होंने तीन पग धरती मांगी और फिर विराट रूप धारण किया था। उस समय उनके उस विराट स्वरूप की मैंने दो घड़ी में ही सात प्रदक्षिणा कर ली थीं। समुद्र मंथन के समय भी मैंने कई औषधियां ला-लाकर समुद्र में डाली थीं, लेकिन अब मैं बूढ़ा हो गया हूं।
मेरा शरीर शिथिल है और ना ही अब वैसी शक्ति मुझमें रही कि मैं इतना पराक्रम कर सकूं। मेरे शरीर और शक्ति की अब सीमा सीमित है।
सीख – जामवंत की कही गई बात सिखाती है कि हमें अपनी उम्र और शरीर को लेकर ईमानदारी रखनी चाहिए। युवा रहते हुए जो पराक्रम किए हैं, वे वृद्धावस्था में नहीं करने चाहिए। इससे शरीर को ही नुकसान होता है।