पुराने समय में सभी ऋषि-मुनि इकट्ठा हुए और सभी विचार करने लगे कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश, ये तीनों देवता श्रेष्ठ हैं, लेकिन इन तीनों में सर्वश्रेष्ठ कौन है? तीनों देवताओं के अलग-अलग गुण हैं।
इन तीनों देवताओं की श्रेष्ठता की परख करने का काम भृगु ऋषि को सौंपा गया। उनसे ऋषियों ने कहा, ‘आप पता लगाएं कि इन तीनों में श्रेष्ठ कौन है?’
भृगु ऋषि सबसे पहले ब्रह्मलोक पहुंचे और ब्रह्माजी के पास जाकर बैठ गए। ब्रह्माजी को ये बिल्कुल अच्छा नहीं लगा कि कोई एकदम उनके पास आकर बैठे। भृगु ऋषि पर उन्हें गुस्सा आया, लेकिन वे कुछ बोले नहीं। भृगु ऋषि ब्रह्माजी के हाव-भाव देखकर समझ गए कि इन्हें अच्छा नहीं लग रहा है।
ब्रह्मलोक के बाद भृगु शिवलोक पहुंचे। वहां जैसे ही शिवजी ने भृगु ऋषि को देखा तो वे खुद उठकर उनके पास पहुंचे और उन्हें गले लगाने की कोशिश की, लेकिन ऋषि ने ऐसा करने से मना कर दिया और पीछे हट गए।
भृगु शिवजी से बोले, ‘आपने चिता की भस्म लगा रखी है, मैं उसे स्पर्श नहीं कर सकता।’ ये सुनते ही शिवजी को क्रोध आ गया, उन्होंने त्रिशूल उठा लिया। उस समय देवी पार्वती ने शिवजी को शांत किया। भृगु ऋषि समझ गए कि यहां तो प्रतिक्रिया ब्रह्माजी से भी ज्यादा आक्रामक है। इसके बाद वे विष्णुलोक पहुंचे।
विष्णुजी विश्राम कर रहे थे। भृगु ऋषि भगवान के पास पहुंचे और एक पैर विष्णुजी की छाती पर मार दिया, लेकिन विष्णुजी क्रोधित नहीं हुए। वे तुरंत उठे और ऋषि के पैर पकड़ कर बोले, ‘मेरी छाती पर अनेक शत्रुओं ने प्रहार किए हैं। सभी के प्रहारों को सह-सहकर मेरी छाती बहुत कठोर हो गई है। आपके चरण कोमल हैं, इस वजह से आपको कहीं चोट तो नहीं लगी?’
भृगु ऋषि सभी ऋषियों के पास लौट आए और सभी से कहा, ‘मेरी नजर में सबसे श्रेष्ठ विष्णुजी हैं और इसीलिए पालन का काम वे कर रहे हैं।’
सीख – इस कथा का उद्देश्य देवताओं की तुलना करना नहीं है। दरअसल, ऋषियों ने हमें सीख देने के लिए ये लीला रची थी। इस कथा की सीख ये है कि हमें किसी भी स्थिति में धैर्य नहीं खोना चाहिए। शांति हमारा आभूषण है। अगर हमें कोई बड़ा काम करना है तो धैर्य से काम लेना चाहिए। जल्दबाजी में काम बिगड़ सकते हैं।