विनोबा भावे बहुत ही विद्वान व्यक्ति थे। एक दिन वे अपने सहायक के साथ बैठकर पत्र पढ़ रहे थे। उनके लिए सैकड़ों पत्र रोज आते थे। वे सभी पत्रों को बहुत ध्यान से पढ़ते और खुद उनके उत्तर लिखकर भेजते भी थे।
पत्र पढ़ते-पढ़ते अचानक विनोबा जी ने एक पत्र फाड़कर कचरे की टोकरी में फेंक दिया। ये देखकर उनका सहायक हैरान हो गया कि पत्र में ऐसा क्या था, जो विनोबा जी ने उसे फाड़कर फेंक दिया। उत्सुकता की वजह से उसने विनोबा जी से पूछा कि क्या वह ये पत्र देख सकता है, जो फाड़कर फेंका है।
विनोबा जी ने उसे अनुमति दी तो उसने टोकरी में से पत्र के टुकड़े निकाले और उन्हें जोड़कर देखा तो वह पत्र महात्मा गांधी का था।
सहायक बोला, ‘आपने महात्मा गांधी का पत्र फाड़कर कचरे में फेंक दिया, ये बात समझ नहीं आई।’
विनोबा जी बोले, ‘पत्र ध्यान से पढ़ो, इसमें बापू ने मेरी बहुत तारीफ लिखी है। ये तारीफ मैं पचा नहीं पा रहा हूं। मुझे लगा कि ये तारीफ मुझे अहंकारी बना देगी। इसीलिए मैंने ये पत्र फाड़ दिया। भले ही ये बापू का पत्र था।’
सीख – प्रशंसा दो काम कर सकती है। पहला, ये हमारा घमंड बढ़ा सकती है। दूसरा, इससे हमारा उत्साह बढ़ सकता है। अगर तारीफ की वजह से अहंकार बढ़ रहा है तो ऐसी तारीफ को नजरअंदाज कर देना चाहिए। प्रशंसा से उत्साह बढ़ता है तो ये ठीक है।