कर्म वह है, जो आत्मा का असली स्वभाव प्रकट न होने दे। उसे ढँक दे। जैन धर्म में कर्म सिद्धांत पर बहुत जोर दिया गया है। मूल कर्म आठ हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। उत्तर प्रकृतियाँ अनेक हैं।
जैन धर्म में ऐसा माना जाता है कि संसार के प्राणी जो दुःख भोग रहे हैं, उसका कारण है उनका अपना-अपना कर्म। इस कर्म बंधन से मुक्त होना ही मोक्ष है। कर्म का जैन सिद्धांत में वह अर्थ नहीं है, जिसे कर्तव्य कर्म कहा जाता है। ‘कर्म’ नाम के परमाणु होते हैं, जो आत्मा की तरफ निरंतर खिंचते रहते हैं। इन्हें ‘कार्मण वर्गणा’ कहा जाता है। पुद्गल के सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप को ‘परमाणु’ कहते हैं। मनुष्य की प्रवृत्ति और परिणाम के अनुसार वैसे कर्म परमाणु आत्मा से चिपट जाते हैं और उनमें शक्ति भी आ जाती है। ये कर्म फिर सुख-दुःख देते हैं।