खो ना जाएँ यह तारे ज़मीन पर……

अभी हाल ही में मैंने आमिर खान कि फिल्म “तारे ज़मीन पर” देखी.उस फिल्म में आमिर खान के प्रयासों ओर उसके ज़रिये बताई गयी बातों ने ह्रदय को गहराई तक स्पर्श किया.कई दृश्यों में ऐसा लगा मानो हमारे वास्तविक जीवन कि परिस्थितियाँ परदे पर उतर आई हों.

उस फिल्म में expectations पर ख़ास बातें कि गयी हैं जो कि अत्यंत हृदयस्पर्शी हैं.वास्तविकता में यदि हम आंकलन करें तो हम यह पायेंगे कि अपनी सामजिक संरचना को expectations के ज़रिये एक ऐसे जाल में तब्दील कर चुके है जहाँ फँसना सबकी मजबूरी जैसी हो गयी है.

हमने ऐसी मानसिकता ओर व्यवस्था बना ली है कि यदि हमारी expectations (स्वयं से या किसी ओर से) पूरी होती हैं तो हम expectations के दायरे को ओर बड़ा कर देते हैं ओर यदि यह expectations पूरी नहीं होती हैं तो हम सामने वाले के तमाम प्रयासों ओर म्हणत को नकार कर उसे नकारात्मक दृष्टिकोण से देखने लगते हैं जैसे यह कोई अक्षम्य अपराध हो.

पर इन सब चक्करों में यह वास्तविकता भूल जाते हैं कि हर मनुष्य परमपिता परमेश्वर कि अनमोल कृति है,जिसमे कोई ना कोई विशेष गुण अवश्य मौजूद द्रेहता है.आवश्यकता यदि है तो तो बस उस खूबी को पहचान कर उसे सही तरीके से निखारने कि.उसके बाद जो जादुई परिणाम उभर कर सामने आयेंगे वो आज कि सामाजिक संरचना कि सोच से भी परे होंगे.

वास्तविकता तो यह है कि हर मनुष्य तारे-सितारों कि तरह है,बस उसे अपनी चमक को खोने नहीं देना चाहिए चाहे कितनी भी विषम परिस्थितियाँ जीवन में खड़ी हो जाएँ.

यदि हम अपनी expectations के दायरे को इस सामाजिक भूल-भुलैया से निकालकर स्वयं तक सीमित रखें अर्थात self-expectations कि ओर अपना ध्यान केन्द्रित करें तो अवश्य ही मुमकिन है कि हर मनुष्य अपने-अपने क्षेत्र में ध्रुव तारे के समान चमके.

मेरा मन तो कहता है की मौजूदा सामाजिक संरचना को नकार कर ऐसा ही करना चाहिए जैसा मैंने अभी-अभी वर्णन किया परन्तु सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष के प्रयत्न से संरचना का पुनर्गठन नहीं हो सकता. इसके लिए ज़रूरी है सबके सतत प्रयासों कि परन्तु तभी मस्तिष्क में यह विचार कौंध जाता है कि क्या वास्तविकता में ऐसा होना मुमकिन है या कई तारे यूँ ही ज़मीन पर खो जायेंगे?

जवाब मेरे पास शायद है भी ओर नहीं भी…..


लेखक:-मोहित कुमार जैन
२६-१२-२००७

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