कुछ लोग अपने से बड़ों को देखकर जीते हैं, कुछ छोटों को और कुछ अपने समान लोगों को ही देखकर जीते हैं। जीवन का यही तरीका है, हमें किसी को तो आदर्श बनाकर जीना ही पड़ेगा। लेकिन कई लोग इस बात को समझ नहीं पाते हैं कि किसको देखकर जीया जाए। यह भी बहुत बड़ा सवाल है कि हम किसे देखकर जीएं। अध्यात्म इसका उत्तर देता है कि हमें अगर कोई आदर्श न मिले तो फिर उसे देखकर जीएं जो सबको देख रहा है, यानी परमात्मा। सबसे अच्छी जीवनशैली कौनसी?
दुनिया में रहते हुए जब हम जीने के एक ढंग से ऊब जाते हैं तो दूसरी जीवनचर्या में प्रवेश कर जाते हैं। चेंज के चक्कर में मनुष्य चकरघिन्नी हो जाता है बस। आइए जीने का एक तरीका यह भी अपनाया जा सकता है। उसे देखकर जीएं जो सबको देख रहा है। इसे सीधी भाषा में कह सकते हैं भक्त बन जाएं और अपने पुरुषार्थ, आत्म विश्वास को भगवान के भरोसे छोड़ दें। परिश्रम अपना हो परिणाम उसका रहे। इसका सीधा सा अर्थ है श्रम हम करें और फल परमात्मा पर छोड़ दें। अध्यात्म में इसे ही निष्कामता कहा गया है।ऐसा सुनकर लोगों को लगता है कि यह तो बड़ी अकर्मण्यता हो जाएगी। भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म को लेकर वैसे भी लोग कहते हैं कि सब भगवान भरोसे, भाग्य भरोसे चलता है। लोग कुछ करते-धरते नहीं, परंतु धर्म ने ऐसा कभी नहीं कहा, अध्यात्म यह नहीं कहता, भगवान् ने भी यह नहीं कहा कि मेरा पूजन करने वाला अकर्मण्य बैठ जाए। भक्त का अपना कर्मयोग होता है। भक्ति जीवन में उतरते ही प्रत्येक कृत्य, हर बात के अर्थ ही बदल जाते हैं।जैन साहित्य में महावीर स्वामी के दो वाक्य बहुत ही अद्भुत व्यक्त हुए हैं।
एक बार उन्होंने कहा कि यदि आपने बिछाने के लिए दरी खोली, खोलना शुरू ही की तो समझ लो दरी खुल गई। यदि शुरु ही किया तो समझें काम पूरा हो गया। दूसरी बात कही थी यदि चल दिए तो समझ लो पहुंच गए। भगवान की यात्रा में कदम उठाना ही काफी है। उसकी ओर चरण चले कि मार्ग और मंजिल का फर्क खत्म हो जाएगा। यह है भक्त का भरोसा, इस जीवनशैली को भी अपना कर देखें। जीवन में जब भी किसी काम के लिए अपने कदम बढ़ाएं तो मन में विश्वास रखें कि मंजिल बस सामने ही है। यही विश्वास आपको दोनों दुनिया, भौतिक और आध्यात्मिक जगत में एक जैसी सफलता दिलाएगा।